विलादत:-
आसमाने विलायत के आँठवे सितारे, हज़रत अली इब्ने मुर्सरिज़ा अ० 11 ज़िलक़ाद 147 हिजरी को अपने जद्देे बुज़ुुर्गवार इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम की रहलत के 16 दिन के बाद पैदा हुए। आपका नाम अली रखा गया। मशहूर लक़ब रिज़ा और कुनीअत अबुल हसन है पदरे बुज़ुर्गवार का इस्मे गिरामी इमाम मूसा काज़िम अ० और मादरे ग्रामी का नाम नजमा है,जो खुर्द मंदी, ईमान और तक़वे में मुमताज़ तरीन औरतो मे से थी।
इमामत:-
इमाम अली इब्ने मुर्सरिज़ा अ०183 हिजरी मे जनाब मूसा इब्ने जाफर अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद 35 बरस की उम्र मे मनसबे इमामत संभाला।
अपनी शहादत से पहले इमाम मूसा इब्ने जाफर अ० ने ज़मीन पर आँठवे हुज्जत-ए-ख़ुदा और अपने बाद के इमाम का तार्रुफ़ मुसलमानो के दरमियान कराया ताकि लोग गुमराही मे ना पड़ जाएं।
मख़ज़ूम नकल करते हैं के इमाम मूसा इब्ने जाफर अ० ने मुझको और चंद दूसरे अफराद को बुलाया और फरमाया :- तुमको मालूम है कि मैंने तुम लोगों को क्यों बुलाया है ? हमने कहा नही : आपने फरमाया :- मै चाहता हूं कि तुम लोग गवाह रहो कि मेरा यह बेटा (इमाम रज़ा की तरफ इशारा करके) वसी और मेरा जांनशीन है।
यज़ीद बिन सलीत नक़ल करते है कि उमराह बजा लाने के लिए मै मक्का जा रहा था, रास्ते मे इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात हुई। मैने उनसे फरमाया कि मेरे मां-बाप आप पर फिदा हो जाए आप भी अपने पदरे बुज़ुर्गवार की तरह मुझको बताइए और अपने बाद आने वाले इमाम का तार्रुफ़ कराइए। इमाम ने इमामत के बारे मे थोड़ी सी वज़ाहत करने और इस बात को बयान करने के बाद कि इमाम ख़ुदा और पैगंबर की तरफ से मुअय्यन होता है। फरमाया मेरे बाद मेरे फर्जंद अली इब्ने मूसा इमाम होंगे जो अली और अली यिबनिल हुसैन के हम नाम होंगे।
अख़लाको सीरत:-
आइम्मा मासूमीन अलैहिस्सलाम का पसंदीदा अख़लाक और बेहतरीन सीरत मे दूसरो के लिए नमूनए अमल थे और अमली तौर पर लोगों को जिंदगी,पाकीज़गी और फज़ीलत का दर्स देते थे। वह लोग बावजूद इसके की इमामत के बुलंद मुक़ाम पर फायज़ और खुदा के बुर्गाज़ीदा बंदे थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने को लोगो से जुदा नहीं किया।
इब्राहिम इब्ने अब्बास कहते थे के :- मैंने कभी यह नहीं देखा के इमाम रिज़ा अपनी बातो से किसी को तकलीफ पहुंचाते हो और किसी के कलाम को क़ता करते हो और किसी हाजतमंद को भगा देते हो, दूसरो की मौजूदगी मे पैर फैलाते या टेक लगाते हो या अपने गुलामो मे से किसी को कोई बात कहते हो और क़हक़हा मार कर हंसते हो उनकी हंसी बस तबस्सुम तक थी। जब दस्तरख्वान बिछाया जाता तो इमाम अ०, तमाम घर वालो को यहां तक कि दरबान और ख़िदमत गुज़ार को भी इस पर बिठाते और उन लोगो के साथ खाना खाते। रातो को कम सोते और रात के ज्यादा हिस्से मे सुबह तक बेदार (जागते) रहते और इबादत किया करते थे, बहुत रोज़े रखते।
मोहम्मद बिन अबी अबाद नक़ल करते हैं कि :- गर्मी मे आप का फर्श चटाई और जाड़ो मे कंबल होता था। घर मे खुरदुरा कपड़ा पहनते लेकिन जब कभी लोगो के दरमियान जाते तो (जो लिबास पहना जाता है वही पहनते थे) अपने को संवारते।
एक शब अपने मेहमानो के साथ बैठे हुए बाते कर रहे थे कि नागाह चिराग़ मे कोई ख़राबी पैदा हो गई। मेहमान ने हाथ बढ़ाया ताकि चिराग़ को रोशन कर दे पर इमाम अ० ने मना फरमाया और खुद इस काम को अंजाम दिया और फरमाया" हम वह है कि जो मेहमानो से काम नही लेते।
इमाम रिज़ा के खादिम (यासिर) नक़ल करते हैं कि इमाम ने हम से फरमाया :- कि जब तुम खाना खा रहे हो और मै तुम्हारे पास आकर खड़ा हो जाऊं तो तुम (मेरे एहतराम के लिए) खड़े ना होना, जब तक खाना खाकर फारिग़ ना हो जाओ। इसी वजह से अक्सर ऐसा इत्तेफाक हुआ कि इमाम ने हमको आवाज़ दी और उनके जवाब मे कह दिया गया कि खाना खाने मे मशग़ूल है। इमाम ऐसे मौके पर कह देते थे कि "अच्छा रहने दो जब तक के खाना खाकर फारिग़ ना हो जाएं।"
इमाम का इल्मी मक़ान:-
आठवे इमाम इल्मो फज़ल के एतबार से उस मंजिल पर फायज़ थे कि हर आदमी आपको पहचानता,आपकी इल्मी अज़मत का एतराफ करता और आपके सामने सर ताज़िम से झुका देता था।
आपका ज़माना वही ज़माना था जिस ज़माने मे लौगो के अलग-अलग अक़ीदे थे। और लौगो तक अलग-अलग इल्म पहुँच रहा था। लेकिन इमाम मुसर्रिज़ा के इल्म पर लौग यक़ीन करते थे।
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की अज़मतो मुमताज शख्सियत के ताल्लुक तमाम मवर्रेक़ीन और मुकद्देसीन इत्तेफाके नज़र रखते हैं। यहां तक के मामून जो आपका सख्त दुश्मन था उसने भी बारहा इसका एतराफ किया है।
उसने जब अपने मुअय्यन किर्दा शख्स रज़ा बिन अबिज़हाक से इमाम अ० के सफर करने की खुफिया खबर सुनी तो कहा:- "यह (इमाम की तरफ इशारा करके) रूहे ज़मीन पर बेहतरीन किरदार फर्द इंसानों मे सबसे बड़े आलिम और आबिद हैं....."
इमामत का ज़माना:-
अली इब्ने मूसा अलैहिस्सलाम ने अपने पदरे बुज़ुुर्गवार के क़ैदखाने में शहादत के बाद 35 साल की उम्र में रहबरी और इमामत का ओहदा संभाला। आप की इमामत की मुद्दत 20 साल थी। हारून अल रशीद के ज़माने के 10 साल और अमीन की हुकूमत के ज़माने के 5 साल और मामून की ख़िलाफत के अहद के 5 साल।
आपकी इमामत के ज़माने मे आपके मुजाहिद, अब्बासी ख़िलाफत कि मिशनरी के मद्दे मुकाबिल था। अच्छे से जानने के लिए ज़रूरी है। कि इस ज़माने के हालात और ख़ुसूसियात को देखते हुए आपके ज़मान-ए-इमामत को दो हिस्सों में तक्सीम किया जाए।
1- आग़ाज़े इमामत से ख़ुरासान भेजे जाने तक (183 हिजरी से 201 हिजरी तक)
2- खुरासान भेजे जाने के बाद (201 हिजरी से 203 हिजरी तक)
आसमाने विलायत के आँठवे सितारे, हज़रत अली इब्ने मुर्सरिज़ा अ० 11 ज़िलक़ाद 147 हिजरी को अपने जद्देे बुज़ुुर्गवार इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम की रहलत के 16 दिन के बाद पैदा हुए। आपका नाम अली रखा गया। मशहूर लक़ब रिज़ा और कुनीअत अबुल हसन है पदरे बुज़ुर्गवार का इस्मे गिरामी इमाम मूसा काज़िम अ० और मादरे ग्रामी का नाम नजमा है,जो खुर्द मंदी, ईमान और तक़वे में मुमताज़ तरीन औरतो मे से थी।
इमामत:-
इमाम अली इब्ने मुर्सरिज़ा अ०183 हिजरी मे जनाब मूसा इब्ने जाफर अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद 35 बरस की उम्र मे मनसबे इमामत संभाला।
अपनी शहादत से पहले इमाम मूसा इब्ने जाफर अ० ने ज़मीन पर आँठवे हुज्जत-ए-ख़ुदा और अपने बाद के इमाम का तार्रुफ़ मुसलमानो के दरमियान कराया ताकि लोग गुमराही मे ना पड़ जाएं।
मख़ज़ूम नकल करते हैं के इमाम मूसा इब्ने जाफर अ० ने मुझको और चंद दूसरे अफराद को बुलाया और फरमाया :- तुमको मालूम है कि मैंने तुम लोगों को क्यों बुलाया है ? हमने कहा नही : आपने फरमाया :- मै चाहता हूं कि तुम लोग गवाह रहो कि मेरा यह बेटा (इमाम रज़ा की तरफ इशारा करके) वसी और मेरा जांनशीन है।
यज़ीद बिन सलीत नक़ल करते है कि उमराह बजा लाने के लिए मै मक्का जा रहा था, रास्ते मे इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात हुई। मैने उनसे फरमाया कि मेरे मां-बाप आप पर फिदा हो जाए आप भी अपने पदरे बुज़ुर्गवार की तरह मुझको बताइए और अपने बाद आने वाले इमाम का तार्रुफ़ कराइए। इमाम ने इमामत के बारे मे थोड़ी सी वज़ाहत करने और इस बात को बयान करने के बाद कि इमाम ख़ुदा और पैगंबर की तरफ से मुअय्यन होता है। फरमाया मेरे बाद मेरे फर्जंद अली इब्ने मूसा इमाम होंगे जो अली और अली यिबनिल हुसैन के हम नाम होंगे।
अख़लाको सीरत:-
आइम्मा मासूमीन अलैहिस्सलाम का पसंदीदा अख़लाक और बेहतरीन सीरत मे दूसरो के लिए नमूनए अमल थे और अमली तौर पर लोगों को जिंदगी,पाकीज़गी और फज़ीलत का दर्स देते थे। वह लोग बावजूद इसके की इमामत के बुलंद मुक़ाम पर फायज़ और खुदा के बुर्गाज़ीदा बंदे थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने को लोगो से जुदा नहीं किया।
इब्राहिम इब्ने अब्बास कहते थे के :- मैंने कभी यह नहीं देखा के इमाम रिज़ा अपनी बातो से किसी को तकलीफ पहुंचाते हो और किसी के कलाम को क़ता करते हो और किसी हाजतमंद को भगा देते हो, दूसरो की मौजूदगी मे पैर फैलाते या टेक लगाते हो या अपने गुलामो मे से किसी को कोई बात कहते हो और क़हक़हा मार कर हंसते हो उनकी हंसी बस तबस्सुम तक थी। जब दस्तरख्वान बिछाया जाता तो इमाम अ०, तमाम घर वालो को यहां तक कि दरबान और ख़िदमत गुज़ार को भी इस पर बिठाते और उन लोगो के साथ खाना खाते। रातो को कम सोते और रात के ज्यादा हिस्से मे सुबह तक बेदार (जागते) रहते और इबादत किया करते थे, बहुत रोज़े रखते।
मोहम्मद बिन अबी अबाद नक़ल करते हैं कि :- गर्मी मे आप का फर्श चटाई और जाड़ो मे कंबल होता था। घर मे खुरदुरा कपड़ा पहनते लेकिन जब कभी लोगो के दरमियान जाते तो (जो लिबास पहना जाता है वही पहनते थे) अपने को संवारते।
एक शब अपने मेहमानो के साथ बैठे हुए बाते कर रहे थे कि नागाह चिराग़ मे कोई ख़राबी पैदा हो गई। मेहमान ने हाथ बढ़ाया ताकि चिराग़ को रोशन कर दे पर इमाम अ० ने मना फरमाया और खुद इस काम को अंजाम दिया और फरमाया" हम वह है कि जो मेहमानो से काम नही लेते।
इमाम रिज़ा के खादिम (यासिर) नक़ल करते हैं कि इमाम ने हम से फरमाया :- कि जब तुम खाना खा रहे हो और मै तुम्हारे पास आकर खड़ा हो जाऊं तो तुम (मेरे एहतराम के लिए) खड़े ना होना, जब तक खाना खाकर फारिग़ ना हो जाओ। इसी वजह से अक्सर ऐसा इत्तेफाक हुआ कि इमाम ने हमको आवाज़ दी और उनके जवाब मे कह दिया गया कि खाना खाने मे मशग़ूल है। इमाम ऐसे मौके पर कह देते थे कि "अच्छा रहने दो जब तक के खाना खाकर फारिग़ ना हो जाएं।"
इमाम का इल्मी मक़ान:-
आठवे इमाम इल्मो फज़ल के एतबार से उस मंजिल पर फायज़ थे कि हर आदमी आपको पहचानता,आपकी इल्मी अज़मत का एतराफ करता और आपके सामने सर ताज़िम से झुका देता था।
आपका ज़माना वही ज़माना था जिस ज़माने मे लौगो के अलग-अलग अक़ीदे थे। और लौगो तक अलग-अलग इल्म पहुँच रहा था। लेकिन इमाम मुसर्रिज़ा के इल्म पर लौग यक़ीन करते थे।
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की अज़मतो मुमताज शख्सियत के ताल्लुक तमाम मवर्रेक़ीन और मुकद्देसीन इत्तेफाके नज़र रखते हैं। यहां तक के मामून जो आपका सख्त दुश्मन था उसने भी बारहा इसका एतराफ किया है।
उसने जब अपने मुअय्यन किर्दा शख्स रज़ा बिन अबिज़हाक से इमाम अ० के सफर करने की खुफिया खबर सुनी तो कहा:- "यह (इमाम की तरफ इशारा करके) रूहे ज़मीन पर बेहतरीन किरदार फर्द इंसानों मे सबसे बड़े आलिम और आबिद हैं....."
इमामत का ज़माना:-
अली इब्ने मूसा अलैहिस्सलाम ने अपने पदरे बुज़ुुर्गवार के क़ैदखाने में शहादत के बाद 35 साल की उम्र में रहबरी और इमामत का ओहदा संभाला। आप की इमामत की मुद्दत 20 साल थी। हारून अल रशीद के ज़माने के 10 साल और अमीन की हुकूमत के ज़माने के 5 साल और मामून की ख़िलाफत के अहद के 5 साल।
आपकी इमामत के ज़माने मे आपके मुजाहिद, अब्बासी ख़िलाफत कि मिशनरी के मद्दे मुकाबिल था। अच्छे से जानने के लिए ज़रूरी है। कि इस ज़माने के हालात और ख़ुसूसियात को देखते हुए आपके ज़मान-ए-इमामत को दो हिस्सों में तक्सीम किया जाए।
1- आग़ाज़े इमामत से ख़ुरासान भेजे जाने तक (183 हिजरी से 201 हिजरी तक)
2- खुरासान भेजे जाने के बाद (201 हिजरी से 203 हिजरी तक)
आग़ाज़े इमामत से ख़ुरासान भेजे जाने तक:-
अली इब्ने मूर्सरिज़ा अलैहिस्सलाम अपने ज़माने के हाकिमे जोर की ताक़त से बेपरवाह होकर हिदायतो रहबरी और इमामत के फरायज़ अंजाम देते रहे , इस रास्ते मे कोई भी कोशिश करने से पीछे नही हटे। हुकूमत के मुकाबिल इमाम का रवैया- इस ख़तरनाक ज़माने मे ऐसा साफ और यक़ीनी था कि आप के कुछ असहाब आप की जान के बारे मे डरने लगे थे।
अली इब्ने मूर्सरिज़ा अलैहिस्सलाम अपने ज़माने के हाकिमे जोर की ताक़त से बेपरवाह होकर हिदायतो रहबरी और इमामत के फरायज़ अंजाम देते रहे , इस रास्ते मे कोई भी कोशिश करने से पीछे नही हटे। हुकूमत के मुकाबिल इमाम का रवैया- इस ख़तरनाक ज़माने मे ऐसा साफ और यक़ीनी था कि आप के कुछ असहाब आप की जान के बारे मे डरने लगे थे।
सफवान इब्ने याहया नक़ल करते हैं कि इमाम रिज़ा अ० ने अपने वालिद की रेहलत के बाद ऐसी बाते कही के हम उनकी जान के बारे में डर गए, और हमने उनसे फरमाया, आपने बहुत बड़ी बातो को आशकार कर दिया है। हम आपके लिए इसी ताग़ूत (हारून) से डर रहे हैं।
आपने फरमाया:- जो कोशिश चाहे कर ले, वह मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता।
मोहम्मद इब्ने सनान फरमाते हैं कि हारून के ज़माने मे मैंने इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से फरमाया कि आपने अम्रे इमामत के लिए अपने को मशहूर कर लिया है और बाप की जगह बैठे है| दर हालांके हारून की तलवार से खून टपक रहा है।
आपने फरमाया कि:- अगर हारुन मेरे सर के बाल मे से एक बाल भी कम कर दे तो तुम गवाह रहना के मै इमाम नही हूँ।
इमाम की इमामत का यह 8 साला दौर ( इब्तदा-ए-इमामत से खु़रासान भेजे जाने तक) जो अमीन व मामून की ख़िलाफत का ज़माना था। एक रुख़ से इमाम मोहम्मद बाक़िर अ० और इमाम जाफर सादिक़ अ० के ज़माने से मुशाबे था।
इसलिए कि एक तरफ अमीन व मामून के दरमियान ख़िलाफत के मसले पर ख़ू-चुका इख़्तेलाफात और कशमकश छिड़ी हुई थी और नतीजे में 198 हिजरी में अमीन क़त्ल कर दिया गया और मामून तख़्ते ख़िलाफत पर बैठा।
मामून इस ज़माने मे इल्मो हिकमत से दोस्ती के नाम पर अपने सियासी मक़सद को हासिल करने के लिए, उनके लिए मैदान खाली कर रहा था और इस बात की कोशिश कर रहा था के हक़दार पार्टी के सक़ाफति ने नुफ़ुज़ को- जो के इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के ज़माने से मायल था- महदूद कर दे और मुआशरे के ज़हन को इंकलाबी और अहलेबैत की हक़ तीलिब सक़ाफत से हटा दे।
यही वह जगह है जहां इस्लामी मुआशरे के लिए आठ साला दौर मे ईमाम अ० की शख़्सियत उभर कर सामने आई और शियो को भी मौक़ा मिला के मुसलसल आपसे राबता रखे और आपकी रहनुमाई से बहरो बरदारी करते रहे। ख़ास उस वक्त से जब आपने बसरा और कूफे का सफर किया और अवामी मरकज़ से बराहेे रास्त इरतरबात पैदा किया। इमाम अ० ने अपने दोस्तो और शियो से मुलाक़ात के अलावा दूसरे क़ोमों के दानिशमंद और मुख़्तलिफ जमातो के लीडरो से बहसो मनाज़रा की और मुआरिफ-ए-इस्लामी की मुख़्तलिफ अंदाज से नशरो इशाअत की।
मामून से एक गुफ्तगू मे आप लोगो के दरमियान अपने नफूज़ की मीज़ान की तरफ इशारा फरमाते हैं कि:- इस अम्र- वली अहदी- ने हमारे लिए किसी नेअमत का इज़ाफा नहीं किया। मै जब मदीने मे था तो मेरी तहरीर मशरिक व मग़रिब मे चलती थी।
अक्सर ऐसा होता था कि हुकूमत के मसायल को हल करने के लिए और मुख्तलिफ गिरोहो के गुस्से को ठंडा करने के लिए मामून इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से राब्ता क़ायम करता था और उनसे यह ख़्वाहिश करता था के लोगो से बाते करे और इन को ख़ामोश रहने और चुप हो जाने की दावत दें।
अलवियों का क़याम:-
अलवियो ने भी दरबारे ख़िलाफत के झगड़ो और इन के आपस मे उलझ जाने से फायदा उठाया
और इमाम की शख़्सियत और उनकी मौक़ुफ पर तकिया करते हुए ख़िलाफत की मिशनरी के ख़िलाफ क़याम और शोरिश (साज़िश) बरपा की।
"अबुल सराया" का क़याम था, उन्होंने "मोहम्मद इब्ने इब्राहिम तबा" की बैयत के नारे के साथ 199 हिजरी में कूफे मे खर्च किया और लोगो को खानदाने पैगंबर की नुसरत और खशहीदाने आले मोहम्मद के खू़न का इंतक़ाम लेने की दावत दी। अबुल असराया का लश्कर उन तमाम सिपाहियो को ख़त्म कर देता था। जिनको हुकूमत इन लोगो से मुक़ाबले के लिए भेजती थी और यह लश्कर जिस शहर मे भी जाता था उसको अपने क़ब्जे़ में ले लेता था।
वह 2 माह से कम अरसे मे मामून के 2 लाख लश्कर वालो को क़त्ल करने मे कामयाब रहे। इस तरह कूफा जिसने हुसैन इब्ने अली अलैहिस्सलाम के साथ धोखे का सबूत दिया और ज़ैद इब्ने अली को तन्हा छोड़ दिया था। इस बार इब्ने तबा तबा की हमराही मे अलवी तहरीक और उसके आला मक़सद के दिफा के लिए उठ खड़ा हुआ।
कूफे मे अबुल सराया के क़याम के अलावा मुख़्तलिफ इलाको जैसे बसरा, यमन, मदायन और शाम मे अलवियो और ग़ैर अलवियो ने क़याम किया और हुकूमते अब्बासी के मद्दे मुक़ाबिल डट गए। यह तमाम चीजें इस बात की बोलती हुई दलील हैं कि, मुख़्तलिफ तबक़ात के लोग गैर इस्लामी हुकूमत और अब्बासियो के ज़ुल्म के खि़लाफ थे और एहलेबैत की हक़ तलबी और अदालत के मूरीद (तरफ) होते जा रहे थे।
इसी वजह से हम देखते हैं इस्लामी ममलेकत के अंदर मामून के तमाम तसीफे (चालबाज़ी) के बावजूद यहां तक के उसके अपने भाई अमीन के क़त्ल कर देने के बाद भी तमाम इस्लामी इलाको पर जैसा चाहता था वैसी तसलत (हुकूमत) हासिल ना कर सका।
अगर के इस ज़माने में ज़ाहिरी कुदरत और ज़रो-ज़ोर के एतबार से निगाहें, हुकूमत के पायए तख़्त "मरू" पर जमी हुई थी। लेकिन दीनी विरासत, आवाज़-ए-हक़ और हक़़ के असली रहबर के चेहरे को देखने के लिए निगाहे मदीने की तरफ मुतावज्जे थी। यानी उस शहर की तरफ जहां फर्जंदे पैग़म्बर और पेशवाए हक़ हज़रत अली इब्ने मूर्सरिज़ा अ० रहते थे।
सफरे ख़ुरासान की पेशकश के आग़ाज़ से शहादत तक।
इमाम की जिंदगी का यह हिस्सा तकरीबन 18 महीनो पर फैला हुआ है। कम मुद्दत होने के बावजूद इस वाक़ीये को अपने दामन मे लिए हुए है। जिस ने ख़िलाफते अब्बासी के मद्दे मुक़ाबिल इमामत के मोक़ुफ को दुसरी सतह मे क़रार दिया है।
वह दुश्वारिया जिन्होंने हुकूमत को खतरे में डाल दिया था उनके चुंगल से निजात (बचने) पाने के लिए मामून ने नया तरीका अपनाया जिसको आज तक उसने नही अपनाया था और वह तरीका यह था कि वली अहदी की पेशकश करके अहम तरीन मुख़ालिफ शख़्सियतों को अपने मरक़ज़े कुदरत मे आने की दावत दी और उनको अपना बालादस्त (दोस्त) बना दे।
लिहाज़ा दिल ना चाहने के बावजूद अपने वज़ीर फज़ल इब्ने सहल से मशवरे के बाद इमाम अलैहिस्सलाम को मदीने से मामून ने मरू बुलाया और वली अहदी क़ुब़ूल करने के लिए मजबूर किया।
मामून के इस ख़िलाफे तवक़्क़ो और नए अक़दाम (क़दम) मे इब्तेदा मे उसकी हुकूमत के लिए बढ़ी मुश्किले खड़ी थी। जिन मे सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि अब्बासियो और अलवियो की राय इस अक़दाम (कदम) का इस्तक़बाल नही कर रही थी। इसलिए कि वह लोग यह देख रहे थे। कि उसने मसनदे ख़िलाफत तक पहुंचने के लिए अपने भाई को क़त्ल कर दिया और खुद भी अहलेबैत के सख़्त तरीन दुश्मनो मे शुमार किया।
इसलिए मामून ने किसी भी मुमकिना सूरत से अपने सदक़ो अख़लास को साबित करने के लिए मिनदर्जा कुछ कदम उठाए:-
1- स्याह लिबास कि जो अब्बासियों का शोआर (जिस लिबास पर फक़्र करते थे) था, जिस्म से उतार फेंका और सब्ज़ लिबास जो अलवियों का शोआर था, अपना लिया।
2- उसने हुक्म दिया के इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के नाम के सिक्के ढ़ाले जाएं और हर शहर मे मिनजुमला उनके मदीने मे उनके नाम के ख़ुत्बे पढ़े जाएं।
3- अपनी बेटी "उम्मे हबीबा"को बावजूद यह कि वह इमाम अलैहिस्सलाम से 40 साल छोटी थी। इमाम अलैहिस्सलाम की ज़ोजियत (शादी करा दी) मे दे दिया।
4- इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम और अलवियो का बज़ाहिर अहतरामो (इज़्ज़त) अकराम करने लगा।
मामून मुतमाइन था के इन कदमो मे से कोई भी कदम यहा तक के इमाम अलैहिस्सलाम के लिए बैयत हासिल करना भी उसके नुकसान का सबब नही है। इस सियासत को अपनाने का मक़सद यह था के उस वक्त फौरन अलवियों की चालो को रोक दिया जाए और एक तवील (लंबे) मुद्दती मंसूबे के तहत इमाम अलैहिस्सलाम को मैदान से अलग हटा दिया जाए।
वली अहदी का वाक़िया
इमाम रिज़ा की वली अहदी के वाक़िये को दो तरीको से देखा जाना चाहिए।
पहला:- वली अहदी के मसायल मे मामून के चंद लोग छिपे हुए थे उन मे से अहम तरीन शख्स की तरफ इशारा किया जा रहा है।
1- इमाम रिज़ा अ० की शख्सियत से जो ख़तरा था उसे से अपने आप को बचा लेना।
2- इमाम रिज़ा अ० को अपने क़ाबू मे रखना और शायद मामून ने अपनी बेटी से आपकी शादी इसी वजह से की थी कि इनको बाहरी क़ाबू करने के अलावा उनकी दाखिली ज़िंदगी मे भी एक जासूस लगा दे जो हमारे लिए भी भरोसे मंद हो और उन (इमाम अ०) का भरोसा भी हासिल कर ले।
चुनांचे हम देखते हैं कि इमाम अ० को मरू बुलाते ही उसने जासूसो को लगा दिया। नतीजा यह हुआ की इमाम अ० के दोस्तदारो की मुलाक़ात कम हो गई और इमाम अलैहिस्सलाम के घर मे जो कुछ होता उसकी ख़बर हश्शाम मामून को देता और वह इस तरह इमाम अ० के शियो और रिश्तेदारो को मुकम्मल तौर पर पहचानता था।
3- लोगो से आप का राब्ता तोड़ देना ताकि इस तरह आप के दोस्तदार आप तक ना पहुंच सकें।
4- इमाम अ० की मआनवी हैसियत और नुफ़ूज़ से अलवियो की साज़िशो को खत्म करने और अब्बासियो के ख़िलाफ लोगो के ग़ैज़ो ग़ज़ब और नफरत को खत्म करने मे फायदा हासिल करना। उसने यह समझा था कि आप की शख़्सियत का जितना मआनवी नुफ़ूज़ है और जितनी अवामी पुश्त पनाही (लोगो की हमदर्दी) आपको हासिल है। आपसे अपना सिलसिला जोड़कर इतनी ही जगह उसकी भी हुकूमत लोगो के दरमियान पैदा कर लेगी।
अपनी हुकूमत को शरअई (इस्लामी) हैसियत देना: इसलिए के अलवियो के अलावा जो हुकूमते बनी अब्बास की हुकूमत को ग़ैर शरअई समझते थे- जो लोग मामून के ज़रिये क़ानूनी ख़लीफा यानी अमीन के क़त्ल की वजह से- ख़िलाफते बनी अब्बास को मानते हुए भी वह मामून की खिलाफत को शको तरदीद की नज़र से देखते थे। इसलिए बहुत से लोगो ने मामून की बैयत नही की थी।
6- अहलेबैत अलैहिस्सलाम की इलाही रहबरी को दाग़दार करना और इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की इजतमाई और मानवी हैसियत को चकनाचूर कर देना। इसलिए के मामून यह सोचता था। के इमाम अ० का वली अहदी को क़ुबूल कर लेने से आपकी मानवी रहबरी को चोट पहुंचेगी। और इमाम अ० की तरफ से लोगो का इत्मिनान ख़त्म हो जाएगा।
खास तौर से इस फर्क की वजह से जो इमाम अलैहिस्सलाम और मामून के दरमियान था। इमाम अलैहिस्सलाम मामून से 22 साल बड़े थे (अब ऐसी सूरत मे) वली अहदी क़ुबूल कर लेने को लोग इमाम अ० की दोस्ती और दुनिया परस्ती समझते। इसलिए कि इस मसले को अहलेबैत अलैहिस्सलाम के नज़रिए और नारे के ख़िलाफ पाते जो वह बुलंद किया करते थे।
आँठवे ईमाम अलैहिस्सलाम ने मामून के साथ अपनी एक गुफ्तगु मे इस नक्शे की तरफ इशारा किया है आप फरमाते हैं:- तुम यह चाहते हो कि लोग कहने लगे के अली इब्ने मुर्सरिज़ा अलैहिस्सलाम दुनिया से रूहगिर्दा नही है, यह दुनिया है जो इन तक नहीं पहुंच पाई है। क्या तुम लोग नही देखते कि उन्होंने किस तरह (रिन हालात में) खि़लाफत की वली अहदी क़ुबूल कर ली"?
दूसरी तरफ मामून को यह मालूम था के इमाम अलैहिस्सलाम का हुकूमत की मिशनरी मे दाखिल होना इन तमाम खराबियो और अज़ीम इनहराफात के बाद- असलाह का बाइस (ज़रिया) नही बनेगा। वह चाहता था के इमाम अलैहिस्सलाम को ऐसी जगह पर लाया जाए ताकि लोगो को समझाया जा सके। के इमाम अलैहिस्सलाम अम्रे ख़िलाफत के लायक़ नही है।
इमाम अलैहिस्सलाम के नुक़्ते नज़र से इमाम अ० को पहले मामून की पेशकश का सामना हुआ लेकिन इमाम अलैहिस्सलाम ने बड़ी शिद्दत से इसको क़ुबूल करने से इंकार कर दिया और जवाब में फरमाया:- "अगर ख़िलाफत तुम्हारा हक़ है तो तुमको यह हक़ नही है कि खुदा के पहनाए हुए इस लिबास को अपने जिस्म से उतार कर दूसरे के जिस्म पर पहना दो और अगर तुम्हारा हक़ नही है तो इस चीज़ को किस तरह तुम दे रहे हो जो तुम्हारी मिल्कियत नही है"
मामून ने वली अहदी की पेशकश की ओर इमाम अलैहिस्सलाम को हर तरफ से उसे क़ुबूल करने पर मजबूर किया। उसने कहा उमर इब्ने खत्ताब ने अपने बाद ख़िलाफत के मनसब के लिए कमेटी बनाई और हुक्म दिया है कि जो मुख़ालिफत करे उसकी गर्दन उड़ा देना। अब जो मैंने इरादा किया है उसको क़ुबूल कर लेने के सिवा और कोई चारा नही है वरना मैं आपकी गर्दन उड़ा दूंगा।
इमान अलैहिस्सलाम ने इस की पेशकश को कई बार ठुकराने के बाद मजबूरन तरीके पर वली अहदी को क़ुबूल कर लिया। मामून ने 5 रमज़ान 201 हिजरी को इमाम अलैहिस्सलाम की वली अहदी का और बैयत का जश्न मनाया। मसला-ए-वली अहदी के बारे मे इमाम अलैहिस्सलाम के मोक़ुफ के वाज़ेह (साफ) हो जाने के लिए हम मुख़्तसर तौर पर 3 मौज़ूआत की तहक़ीक़ करेंगे:-
आपने फरमाया:- जो कोशिश चाहे कर ले, वह मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता।
मोहम्मद इब्ने सनान फरमाते हैं कि हारून के ज़माने मे मैंने इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से फरमाया कि आपने अम्रे इमामत के लिए अपने को मशहूर कर लिया है और बाप की जगह बैठे है| दर हालांके हारून की तलवार से खून टपक रहा है।
आपने फरमाया कि:- अगर हारुन मेरे सर के बाल मे से एक बाल भी कम कर दे तो तुम गवाह रहना के मै इमाम नही हूँ।
इमाम की इमामत का यह 8 साला दौर ( इब्तदा-ए-इमामत से खु़रासान भेजे जाने तक) जो अमीन व मामून की ख़िलाफत का ज़माना था। एक रुख़ से इमाम मोहम्मद बाक़िर अ० और इमाम जाफर सादिक़ अ० के ज़माने से मुशाबे था।
इसलिए कि एक तरफ अमीन व मामून के दरमियान ख़िलाफत के मसले पर ख़ू-चुका इख़्तेलाफात और कशमकश छिड़ी हुई थी और नतीजे में 198 हिजरी में अमीन क़त्ल कर दिया गया और मामून तख़्ते ख़िलाफत पर बैठा।
मामून इस ज़माने मे इल्मो हिकमत से दोस्ती के नाम पर अपने सियासी मक़सद को हासिल करने के लिए, उनके लिए मैदान खाली कर रहा था और इस बात की कोशिश कर रहा था के हक़दार पार्टी के सक़ाफति ने नुफ़ुज़ को- जो के इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के ज़माने से मायल था- महदूद कर दे और मुआशरे के ज़हन को इंकलाबी और अहलेबैत की हक़ तीलिब सक़ाफत से हटा दे।
यही वह जगह है जहां इस्लामी मुआशरे के लिए आठ साला दौर मे ईमाम अ० की शख़्सियत उभर कर सामने आई और शियो को भी मौक़ा मिला के मुसलसल आपसे राबता रखे और आपकी रहनुमाई से बहरो बरदारी करते रहे। ख़ास उस वक्त से जब आपने बसरा और कूफे का सफर किया और अवामी मरकज़ से बराहेे रास्त इरतरबात पैदा किया। इमाम अ० ने अपने दोस्तो और शियो से मुलाक़ात के अलावा दूसरे क़ोमों के दानिशमंद और मुख़्तलिफ जमातो के लीडरो से बहसो मनाज़रा की और मुआरिफ-ए-इस्लामी की मुख़्तलिफ अंदाज से नशरो इशाअत की।
मामून से एक गुफ्तगू मे आप लोगो के दरमियान अपने नफूज़ की मीज़ान की तरफ इशारा फरमाते हैं कि:- इस अम्र- वली अहदी- ने हमारे लिए किसी नेअमत का इज़ाफा नहीं किया। मै जब मदीने मे था तो मेरी तहरीर मशरिक व मग़रिब मे चलती थी।
अक्सर ऐसा होता था कि हुकूमत के मसायल को हल करने के लिए और मुख्तलिफ गिरोहो के गुस्से को ठंडा करने के लिए मामून इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से राब्ता क़ायम करता था और उनसे यह ख़्वाहिश करता था के लोगो से बाते करे और इन को ख़ामोश रहने और चुप हो जाने की दावत दें।
अलवियों का क़याम:-
अलवियो ने भी दरबारे ख़िलाफत के झगड़ो और इन के आपस मे उलझ जाने से फायदा उठाया
और इमाम की शख़्सियत और उनकी मौक़ुफ पर तकिया करते हुए ख़िलाफत की मिशनरी के ख़िलाफ क़याम और शोरिश (साज़िश) बरपा की।
"अबुल सराया" का क़याम था, उन्होंने "मोहम्मद इब्ने इब्राहिम तबा" की बैयत के नारे के साथ 199 हिजरी में कूफे मे खर्च किया और लोगो को खानदाने पैगंबर की नुसरत और खशहीदाने आले मोहम्मद के खू़न का इंतक़ाम लेने की दावत दी। अबुल असराया का लश्कर उन तमाम सिपाहियो को ख़त्म कर देता था। जिनको हुकूमत इन लोगो से मुक़ाबले के लिए भेजती थी और यह लश्कर जिस शहर मे भी जाता था उसको अपने क़ब्जे़ में ले लेता था।
वह 2 माह से कम अरसे मे मामून के 2 लाख लश्कर वालो को क़त्ल करने मे कामयाब रहे। इस तरह कूफा जिसने हुसैन इब्ने अली अलैहिस्सलाम के साथ धोखे का सबूत दिया और ज़ैद इब्ने अली को तन्हा छोड़ दिया था। इस बार इब्ने तबा तबा की हमराही मे अलवी तहरीक और उसके आला मक़सद के दिफा के लिए उठ खड़ा हुआ।
कूफे मे अबुल सराया के क़याम के अलावा मुख़्तलिफ इलाको जैसे बसरा, यमन, मदायन और शाम मे अलवियो और ग़ैर अलवियो ने क़याम किया और हुकूमते अब्बासी के मद्दे मुक़ाबिल डट गए। यह तमाम चीजें इस बात की बोलती हुई दलील हैं कि, मुख़्तलिफ तबक़ात के लोग गैर इस्लामी हुकूमत और अब्बासियो के ज़ुल्म के खि़लाफ थे और एहलेबैत की हक़ तलबी और अदालत के मूरीद (तरफ) होते जा रहे थे।
इसी वजह से हम देखते हैं इस्लामी ममलेकत के अंदर मामून के तमाम तसीफे (चालबाज़ी) के बावजूद यहां तक के उसके अपने भाई अमीन के क़त्ल कर देने के बाद भी तमाम इस्लामी इलाको पर जैसा चाहता था वैसी तसलत (हुकूमत) हासिल ना कर सका।
अगर के इस ज़माने में ज़ाहिरी कुदरत और ज़रो-ज़ोर के एतबार से निगाहें, हुकूमत के पायए तख़्त "मरू" पर जमी हुई थी। लेकिन दीनी विरासत, आवाज़-ए-हक़ और हक़़ के असली रहबर के चेहरे को देखने के लिए निगाहे मदीने की तरफ मुतावज्जे थी। यानी उस शहर की तरफ जहां फर्जंदे पैग़म्बर और पेशवाए हक़ हज़रत अली इब्ने मूर्सरिज़ा अ० रहते थे।
सफरे ख़ुरासान की पेशकश के आग़ाज़ से शहादत तक।
इमाम की जिंदगी का यह हिस्सा तकरीबन 18 महीनो पर फैला हुआ है। कम मुद्दत होने के बावजूद इस वाक़ीये को अपने दामन मे लिए हुए है। जिस ने ख़िलाफते अब्बासी के मद्दे मुक़ाबिल इमामत के मोक़ुफ को दुसरी सतह मे क़रार दिया है।
वह दुश्वारिया जिन्होंने हुकूमत को खतरे में डाल दिया था उनके चुंगल से निजात (बचने) पाने के लिए मामून ने नया तरीका अपनाया जिसको आज तक उसने नही अपनाया था और वह तरीका यह था कि वली अहदी की पेशकश करके अहम तरीन मुख़ालिफ शख़्सियतों को अपने मरक़ज़े कुदरत मे आने की दावत दी और उनको अपना बालादस्त (दोस्त) बना दे।
लिहाज़ा दिल ना चाहने के बावजूद अपने वज़ीर फज़ल इब्ने सहल से मशवरे के बाद इमाम अलैहिस्सलाम को मदीने से मामून ने मरू बुलाया और वली अहदी क़ुब़ूल करने के लिए मजबूर किया।
मामून के इस ख़िलाफे तवक़्क़ो और नए अक़दाम (क़दम) मे इब्तेदा मे उसकी हुकूमत के लिए बढ़ी मुश्किले खड़ी थी। जिन मे सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि अब्बासियो और अलवियो की राय इस अक़दाम (कदम) का इस्तक़बाल नही कर रही थी। इसलिए कि वह लोग यह देख रहे थे। कि उसने मसनदे ख़िलाफत तक पहुंचने के लिए अपने भाई को क़त्ल कर दिया और खुद भी अहलेबैत के सख़्त तरीन दुश्मनो मे शुमार किया।
इसलिए मामून ने किसी भी मुमकिना सूरत से अपने सदक़ो अख़लास को साबित करने के लिए मिनदर्जा कुछ कदम उठाए:-
1- स्याह लिबास कि जो अब्बासियों का शोआर (जिस लिबास पर फक़्र करते थे) था, जिस्म से उतार फेंका और सब्ज़ लिबास जो अलवियों का शोआर था, अपना लिया।
2- उसने हुक्म दिया के इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के नाम के सिक्के ढ़ाले जाएं और हर शहर मे मिनजुमला उनके मदीने मे उनके नाम के ख़ुत्बे पढ़े जाएं।
3- अपनी बेटी "उम्मे हबीबा"को बावजूद यह कि वह इमाम अलैहिस्सलाम से 40 साल छोटी थी। इमाम अलैहिस्सलाम की ज़ोजियत (शादी करा दी) मे दे दिया।
4- इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम और अलवियो का बज़ाहिर अहतरामो (इज़्ज़त) अकराम करने लगा।
मामून मुतमाइन था के इन कदमो मे से कोई भी कदम यहा तक के इमाम अलैहिस्सलाम के लिए बैयत हासिल करना भी उसके नुकसान का सबब नही है। इस सियासत को अपनाने का मक़सद यह था के उस वक्त फौरन अलवियों की चालो को रोक दिया जाए और एक तवील (लंबे) मुद्दती मंसूबे के तहत इमाम अलैहिस्सलाम को मैदान से अलग हटा दिया जाए।
वली अहदी का वाक़िया
इमाम रिज़ा की वली अहदी के वाक़िये को दो तरीको से देखा जाना चाहिए।
पहला:- वली अहदी के मसायल मे मामून के चंद लोग छिपे हुए थे उन मे से अहम तरीन शख्स की तरफ इशारा किया जा रहा है।
1- इमाम रिज़ा अ० की शख्सियत से जो ख़तरा था उसे से अपने आप को बचा लेना।
2- इमाम रिज़ा अ० को अपने क़ाबू मे रखना और शायद मामून ने अपनी बेटी से आपकी शादी इसी वजह से की थी कि इनको बाहरी क़ाबू करने के अलावा उनकी दाखिली ज़िंदगी मे भी एक जासूस लगा दे जो हमारे लिए भी भरोसे मंद हो और उन (इमाम अ०) का भरोसा भी हासिल कर ले।
चुनांचे हम देखते हैं कि इमाम अ० को मरू बुलाते ही उसने जासूसो को लगा दिया। नतीजा यह हुआ की इमाम अ० के दोस्तदारो की मुलाक़ात कम हो गई और इमाम अलैहिस्सलाम के घर मे जो कुछ होता उसकी ख़बर हश्शाम मामून को देता और वह इस तरह इमाम अ० के शियो और रिश्तेदारो को मुकम्मल तौर पर पहचानता था।
3- लोगो से आप का राब्ता तोड़ देना ताकि इस तरह आप के दोस्तदार आप तक ना पहुंच सकें।
4- इमाम अ० की मआनवी हैसियत और नुफ़ूज़ से अलवियो की साज़िशो को खत्म करने और अब्बासियो के ख़िलाफ लोगो के ग़ैज़ो ग़ज़ब और नफरत को खत्म करने मे फायदा हासिल करना। उसने यह समझा था कि आप की शख़्सियत का जितना मआनवी नुफ़ूज़ है और जितनी अवामी पुश्त पनाही (लोगो की हमदर्दी) आपको हासिल है। आपसे अपना सिलसिला जोड़कर इतनी ही जगह उसकी भी हुकूमत लोगो के दरमियान पैदा कर लेगी।
अपनी हुकूमत को शरअई (इस्लामी) हैसियत देना: इसलिए के अलवियो के अलावा जो हुकूमते बनी अब्बास की हुकूमत को ग़ैर शरअई समझते थे- जो लोग मामून के ज़रिये क़ानूनी ख़लीफा यानी अमीन के क़त्ल की वजह से- ख़िलाफते बनी अब्बास को मानते हुए भी वह मामून की खिलाफत को शको तरदीद की नज़र से देखते थे। इसलिए बहुत से लोगो ने मामून की बैयत नही की थी।
6- अहलेबैत अलैहिस्सलाम की इलाही रहबरी को दाग़दार करना और इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की इजतमाई और मानवी हैसियत को चकनाचूर कर देना। इसलिए के मामून यह सोचता था। के इमाम अ० का वली अहदी को क़ुबूल कर लेने से आपकी मानवी रहबरी को चोट पहुंचेगी। और इमाम अ० की तरफ से लोगो का इत्मिनान ख़त्म हो जाएगा।
खास तौर से इस फर्क की वजह से जो इमाम अलैहिस्सलाम और मामून के दरमियान था। इमाम अलैहिस्सलाम मामून से 22 साल बड़े थे (अब ऐसी सूरत मे) वली अहदी क़ुबूल कर लेने को लोग इमाम अ० की दोस्ती और दुनिया परस्ती समझते। इसलिए कि इस मसले को अहलेबैत अलैहिस्सलाम के नज़रिए और नारे के ख़िलाफ पाते जो वह बुलंद किया करते थे।
आँठवे ईमाम अलैहिस्सलाम ने मामून के साथ अपनी एक गुफ्तगु मे इस नक्शे की तरफ इशारा किया है आप फरमाते हैं:- तुम यह चाहते हो कि लोग कहने लगे के अली इब्ने मुर्सरिज़ा अलैहिस्सलाम दुनिया से रूहगिर्दा नही है, यह दुनिया है जो इन तक नहीं पहुंच पाई है। क्या तुम लोग नही देखते कि उन्होंने किस तरह (रिन हालात में) खि़लाफत की वली अहदी क़ुबूल कर ली"?
दूसरी तरफ मामून को यह मालूम था के इमाम अलैहिस्सलाम का हुकूमत की मिशनरी मे दाखिल होना इन तमाम खराबियो और अज़ीम इनहराफात के बाद- असलाह का बाइस (ज़रिया) नही बनेगा। वह चाहता था के इमाम अलैहिस्सलाम को ऐसी जगह पर लाया जाए ताकि लोगो को समझाया जा सके। के इमाम अलैहिस्सलाम अम्रे ख़िलाफत के लायक़ नही है।
इमाम अलैहिस्सलाम के नुक़्ते नज़र से इमाम अ० को पहले मामून की पेशकश का सामना हुआ लेकिन इमाम अलैहिस्सलाम ने बड़ी शिद्दत से इसको क़ुबूल करने से इंकार कर दिया और जवाब में फरमाया:- "अगर ख़िलाफत तुम्हारा हक़ है तो तुमको यह हक़ नही है कि खुदा के पहनाए हुए इस लिबास को अपने जिस्म से उतार कर दूसरे के जिस्म पर पहना दो और अगर तुम्हारा हक़ नही है तो इस चीज़ को किस तरह तुम दे रहे हो जो तुम्हारी मिल्कियत नही है"
मामून ने वली अहदी की पेशकश की ओर इमाम अलैहिस्सलाम को हर तरफ से उसे क़ुबूल करने पर मजबूर किया। उसने कहा उमर इब्ने खत्ताब ने अपने बाद ख़िलाफत के मनसब के लिए कमेटी बनाई और हुक्म दिया है कि जो मुख़ालिफत करे उसकी गर्दन उड़ा देना। अब जो मैंने इरादा किया है उसको क़ुबूल कर लेने के सिवा और कोई चारा नही है वरना मैं आपकी गर्दन उड़ा दूंगा।
इमान अलैहिस्सलाम ने इस की पेशकश को कई बार ठुकराने के बाद मजबूरन तरीके पर वली अहदी को क़ुबूल कर लिया। मामून ने 5 रमज़ान 201 हिजरी को इमाम अलैहिस्सलाम की वली अहदी का और बैयत का जश्न मनाया। मसला-ए-वली अहदी के बारे मे इमाम अलैहिस्सलाम के मोक़ुफ के वाज़ेह (साफ) हो जाने के लिए हम मुख़्तसर तौर पर 3 मौज़ूआत की तहक़ीक़ करेंगे:-
1- इमाम अलैहिस्सलाम की नाराज़गी के दलायल।
2- वली अहदी क़ुबूल करने के दलायल।
3- इमाम अलैहिस्सलाम का मुनक़ी रवैया।
2- वली अहदी क़ुबूल करने के दलायल।
3- इमाम अलैहिस्सलाम का मुनक़ी रवैया।
1- इमाम अ० की नाराज़गी के दलायल:-
(a)- रुयान इब्ने सलत नक़ल करते हैं कि मैने इमाम अ० से अर्ज़ किया: ऐ फरजंदे रसूल: कुछ लोग कहते हैं कि आपने मामून की वली अहदी को क़ुबूल कर लिया है बावजूद यह के आप दुनिया की बा निस्बत ज़हदा और रग़बति का इज़हार फरमाते हैं? इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमाया: "यह काम मेरी ख़ुशी का बाइस नहीं था लेकिन मै वली अहदी क़ुबूल करने और क़त्ल किए जाने के दरमियान मुतारद्द था। मजबूरन मैंने वली अहदी को क़ुबूल किया।
(b)-मोहम्मद इब्ने अरफा नक़ल करते है। कि मैंने इमाम अ० से अर्ज़ किया:ऐ फरजंदे रसूले खुदा आपने वली अहदी को क्यों कुबूल किया? आपने फ़रमाया: "इसी दलील से जिस दलील से मेरे जद अली अ० को शोरा (कमेटी) मे शिरकत करने पर आमादा किया गया था"।
(a)-इमाम अलैहिस्सलाम के ख़ादिम यासिर नक़ल करते हैं के इमाम अलैहिस्सलाम के वली अहदी को क़ुबूल कर लेने के बाद मैंने उनको देखा कि आप हाथों को आसमान की तरफ बुलंद करके फरमाते थे: "खुदाया तू तो जानता है कि मैंने मजबूरन इसे कुबूल किया है, लिहाज़ा मुझसे मुवाख़ेज़ा (नाराज़) ना करना जिस तरह तूने अपने बंदे यूसुफ का- जब उन्होंने मिस्र की हुकूमत को क़ुबूल किया- मुवाख़ेज़ा नहीं किया।"
2- वली अहदी क़ुबूल करने के दलायल:-
वली अहदी की इन शर्तों के साथ क़ुबूल करना जो इमाम अलैहिस्सलाम ने रखी थीं। इस ज़माने की सियासी और इजतमाई मसलहत का तक़ाज़ा था वरना अगर कोई भी मसलहत ना होती तो इमाम अलैहिस्सलाम क़ुबूल ही ना करते चाहे नतीजे मे उनका ख़ून ही क्यो ना बहा दिया जाता। इस मोज़ू को वाज़ेह करने के लिए चंद नकात पेश किए जाते हैं:-
(a)- इंकारी के सूरत मे इमाम अलैहिस्सलाम को जो क़ीमत अदा करनी पड़ती वह सिर्फ उनकी जान ना थी बल्की अलवियो और दोस्त सब के सब वाकई खतरे मे पड़ जाते और इस से कोई मतलूबा नतीजा भी हाथ ना आता।
(b)- शियों की इमामत की जगह इस वक़्त तक जिंदानों और शहादतगाहों के अंदर ही थी और शिया जो खिलाफते इस्लामी के अहल थे- अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के ज़माने के अलावा कभी भी कानूनी हैसियत (ज़ाहिरी हैसियत) इनको नही मिली थी कि वह तख़्ते खिलाफत के दामन मे तरक़्की करे और रास्ता तय करें।
सलफ के मुसलसल जिहाद इनके ख़ूने पाक की क़ीमत थी के यह हैसियत अली इब्ने मूर्सरिज़ा अलैहिस्सलाम की बलंदो बाला शख्सियत मे उजागर हुई थी। लिहाज़ा इससे फायदा उठाना चाहिए था। ताकि लोग यह ना सोच बैठें के अहलेबैत- जैसा के लोग लोगो ने मशहूर कर रखा है- सिर्फ इल्म और फिक़या है जिनका सियासत और अमली मैदान मे कोई हिस्सा नहीं है और शायद इब्ने अरफा को ईमाम अलैहिस्सलाम का जवाब भी इस बात की तरफ इशारा हो।
(c)- इमाम अलैहिस्सलाम अपने वली अहदी के ज़माने मे मामून के असली चेहरे को लोगो के दरमियान पहचनवाने और इसकी नियतो मक़सद की पोल खोल कर लोगो के ज़हनो दिमाग़ से हर तरह के शको शुबा को ख़त्म करने मे कामयाब हो गए।
3- इमाम का मनफी रवैया:-
इमाम अ० ने मामून की बहाने बाज़ी वाली सियासत को पहचान कर शुरू से ही, यहां तक की वली अहदी क़ुबूल करने से पहले ही मामून की मिशनरी के मुका़बिल मनफी मोक़ुफ इख्तियार किया। नमूने के तौर पर इनमे से कुछ मवाक़िफ पेश किए जा रहे हैं:-
(a)- मामून की ख्वाहिश यह थी कि आप अपने खानदान मे से जिसको चाहे अपने हमराहा लाएं लेकिन इसके बरख़िलाफ़ इमाम अलैहिस्सलाम यह बताने के लिए कि यह एक ज़बरदस्ती का सफर है और मुझको वतन से दूर किया जा रहा है। अपने खानदान में से किसी को यहां तक कि अपने इकलौते बेटे ईमाम जव्वाद अ० को भी अपने साथ नही लाए और घर से निकलते वक़्त उन्होंने अपने खानदान वालो से अपने सामने गिरिया (रोने) करने की ख्वाहिश की।
(2) इमाम अलैहिस्सलाम "मदीने से मरू" के रास्ते मे जब निशापुर पहुंचे तो वहां उलमा और मुख़्तलिफ गिरोहो के लोगो ने इस्तक़बाल किया। इमाम अलैहिस्सलाम ने उनकी ख़्वाहिश पर इस हदीस का बयान फरमाया जो सिलसिला-ए-अल हज़ब के नाम से मशहूर है:- "ख़ुदा वंदे आलम फरमाता है कि कलमए तौहीद मेरा क़िला है और जो मेरे कलमे को पढ़े वो मेरे क़िले मे दाखिल हो गया और जो मेरे क़िले मे दाखिल हो गया। वह मेरे अज़ाब से महफूज़ हो गया।"
जब हदीस ख़त्म हो गई तो इमाम अलैहिस्सलाम ने अपनी सवारी आगे बढ़ा दी लेकिन चंद कदम चलने के बाद फिर ठहरे और सर को कजावा से बाहर निकालकर फरमाया:- "कलमा-ए-तौहीद के लिए कुछ शरायत है और मिन-जुमला इन शरायत कि मै हूँ।"
इमाम अलैहिस्सलाम ने वली अहदी को कुबूल करने के लिए कुछ शर्तें रखी और फरमाया: मुझे (वली अहदी) कुबूल है लेकिन इसकी शर्त यह है कि मै अमरु नही करने वाला और मुफ्ति व काज़ी नही रहूंगा। किसी को मग़रूल व मंसूब नही करुंगा और किसी चीज़ को तब्दील (बदलना) नहीं करूंगा।
मामून ने इमाम अलैहिस्सलाम से चाहा कि नमाज़े ईद पढ़ा दे। आपने जवाब दिया कि मेरे और तुम्हारे दरमियान जो शर्तें है। उनकी बिना पर तुम मुझ को माज़ूर समझो। मामून ने कहा "इससे हमारा मक़सद ये है कि लोग मुतमइन हो जाएं और आपकी फज़ीलत को पहचान ले।
इमाम अलैहिस्सलाम ने जब मामून का इसरार देखा तो फरमाया कि "अगर मजबूरन मुझे इस काम के लिए जाना ही पड़ा तो मै नमाज़ अदा करने के लिए रसूले खुदा और हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की तरह निकलूंगा।
मामून ने कुबूल किया और हुक्म दिया कि हक्काम,दरबारी और आम अफ़राद ईद की सुबह को इमाम रिज़ा अ० के घर के पास हाज़िर हो।
ईद की सुबह हुई इमाम अलैहिस्सलाम ने ग़ुस्ल फरमाया और सफेद अमामा मख़सूस अंदाज से अपने सर पर रखा। अपने आपको खुशबू से मोअत्तर किया हाथ मे असा लिया और नंगे पैर इस हालत मे कि अपने लिबास के दामन को आधी पिंडली तक ऊपर उठा रखा था निकले और अपने घर के अफराद को भी आपने हुक्म दिया के इसी अंदाज से बाहर निकले। इसके बाद सर को आसमान की तरफ बुलंद करके आपने तकबीर कही आपके साथ चलने वालो ने भी आवाज़ सुनकर तकबीर कही।
लश्कर के कमान्डर , सब अफराद और आवाम घर से बाहर निहायत सज-धज कर मुन्तज़िर खड़े थे। जब इमाम अ० को ऐसी हालत मे देखा तो सवारियो से उतर पड़े और पैरो से जूते निकाल डाले। इमाम अ० तकबीरो को बार-बार दोहराते रहे। माहोल मे ऐसी अज़मत बरस रही थी और ऐसा शोर हो रहा था। जैसे आसमान व ज़मीन, दरो दीवार ,शहरे मरू इन के साथ तकबीर कह रहे हो। लोगो मे ऐसी कैफियत थी। कि बेइख्तियार नालओ-गिरिया की आवाज़ बुलंद होने लगी। इमाम अ० रास्ते मे चलते रहे लेकिन हर 10 क़दम के बाद खड़े हो जाते और 4 बार तकबीर कहते।
फज़ल इब्ने सहल ने इस की रिपोर्ट मामून को दी और इतना इज़ाफा किया कि "अगर इमाम अलैहिस्सलाम इसी तरह बढ़ते रहे तो फितना व फसाद बरपा हो जाएगा और हमारे पास जान बचाने का कोई ज़रिया नही है।आप उन तक ये पैग़ाम भेज दे कि इमाम अ० लौट जाएं।"
मामून ने इमाम अ० से कहलवा भेजा कि "हमने आपको ज़हमत दी आप लौट जाइए जो पहले नमाज़ पढ़ाता था वही नमाज़ पढ़ाएगा।"
इमाम अ० वही से पलट गए और वह लोग जो आशफ्ता और पुरंगिदा थे। उन्होंने मामून के नफाक़ और अवाम फरेबी को समझ लिया और यह जान लिया के मामून इमाम अलैहिस्सलाम के लिए जो कुछ कर रहा है। वह सिर्फ दिखावा है इसका मक़सद सिर्फ अपने सियासी मक़ासिद तक पहुंचना है।
शहादते इमाम अ०
मामून इमाम अ० की रोज़ अफज़ू इज़्ज़त व वक़अत को देख कर डरता था। जब उस ने यह समझ लिया कि इमाम अ० को अपने सियासी अग़राज़ व मक़सद के लिए किसी तरह भी इस्तेमाल नही कर सकता। तो उसने इमाम अ० के क़त्ल का इरादा कर लिया। इसलिए कि वो जानता था कि जितना ज़माना गुज़रता जाएगा उतनी ही ज़्यादा इमाम अ० की अज़मत और हक़्क़ानियत नुमाया होती जाएगी और उसका फरेब लोगो के सामने आता चला जाएगा।
लिहाज़ा मख़सूस साज़िश के तहत माहे सफर के आख़िर मे 203 हिजरी मे जब आपकी उम्र 55 साल की थी। आप को ज़हर दे दिया।
और अपने जुर्म पर पर्दा डालने के लिए शहादत की ख़बर फैलने के बाद गरेबां चाक, सर पीटते,आंखो से आंसू बहाते हुए इमाम अ० के घर की तरफ दौड़ा।
लोग इमाम अलैहिस्सलाम की शहादत की ख़बर सुनते ही आपके घर के इर्द-गिर्द जमा हो गए। गिरिया-ओ-नाला की आवाज़ बुलंद थी। मामून को आपके क़त्ल की हैसियत से लोग याद कर रहे थे और बुलंद आवाज़ से फरियाद कर रहे थे कि "फर्जंद-ए-रसूले ख़ुदा क़त्ल कर दिए गए" और अपने को हज़रत के जिस्दे (जिस्म) मुतह्हर की तशय्यो (दफ्न) के लिए आमादा कर रहे थे।
मामून ने महसूस किया कि अगर आपके जिस्द मुताह्हर कि आशकारा तशय्यो की गई तो मुमकिन है कि कोई हादसा पेश आ जाए लिहाज़ा उस ने हुक्म दिया के ऐलान कर दिया जाए कि आज तशय्यो नही होगी।
जब लोग (हारून का हुक्म नही माना और) मुताफर्रिक़ हो गए तो रातो-रात इमाम अ० को ग़ुस्ल दिया गया और हारुन की क़ब्र के पास जो बाग़ "हमीर इब्ने क़हत्बा"(बाग़ का नाम) मे है सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया।
(a)- रुयान इब्ने सलत नक़ल करते हैं कि मैने इमाम अ० से अर्ज़ किया: ऐ फरजंदे रसूल: कुछ लोग कहते हैं कि आपने मामून की वली अहदी को क़ुबूल कर लिया है बावजूद यह के आप दुनिया की बा निस्बत ज़हदा और रग़बति का इज़हार फरमाते हैं? इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमाया: "यह काम मेरी ख़ुशी का बाइस नहीं था लेकिन मै वली अहदी क़ुबूल करने और क़त्ल किए जाने के दरमियान मुतारद्द था। मजबूरन मैंने वली अहदी को क़ुबूल किया।
(b)-मोहम्मद इब्ने अरफा नक़ल करते है। कि मैंने इमाम अ० से अर्ज़ किया:ऐ फरजंदे रसूले खुदा आपने वली अहदी को क्यों कुबूल किया? आपने फ़रमाया: "इसी दलील से जिस दलील से मेरे जद अली अ० को शोरा (कमेटी) मे शिरकत करने पर आमादा किया गया था"।
(a)-इमाम अलैहिस्सलाम के ख़ादिम यासिर नक़ल करते हैं के इमाम अलैहिस्सलाम के वली अहदी को क़ुबूल कर लेने के बाद मैंने उनको देखा कि आप हाथों को आसमान की तरफ बुलंद करके फरमाते थे: "खुदाया तू तो जानता है कि मैंने मजबूरन इसे कुबूल किया है, लिहाज़ा मुझसे मुवाख़ेज़ा (नाराज़) ना करना जिस तरह तूने अपने बंदे यूसुफ का- जब उन्होंने मिस्र की हुकूमत को क़ुबूल किया- मुवाख़ेज़ा नहीं किया।"
2- वली अहदी क़ुबूल करने के दलायल:-
वली अहदी की इन शर्तों के साथ क़ुबूल करना जो इमाम अलैहिस्सलाम ने रखी थीं। इस ज़माने की सियासी और इजतमाई मसलहत का तक़ाज़ा था वरना अगर कोई भी मसलहत ना होती तो इमाम अलैहिस्सलाम क़ुबूल ही ना करते चाहे नतीजे मे उनका ख़ून ही क्यो ना बहा दिया जाता। इस मोज़ू को वाज़ेह करने के लिए चंद नकात पेश किए जाते हैं:-
(a)- इंकारी के सूरत मे इमाम अलैहिस्सलाम को जो क़ीमत अदा करनी पड़ती वह सिर्फ उनकी जान ना थी बल्की अलवियो और दोस्त सब के सब वाकई खतरे मे पड़ जाते और इस से कोई मतलूबा नतीजा भी हाथ ना आता।
(b)- शियों की इमामत की जगह इस वक़्त तक जिंदानों और शहादतगाहों के अंदर ही थी और शिया जो खिलाफते इस्लामी के अहल थे- अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के ज़माने के अलावा कभी भी कानूनी हैसियत (ज़ाहिरी हैसियत) इनको नही मिली थी कि वह तख़्ते खिलाफत के दामन मे तरक़्की करे और रास्ता तय करें।
सलफ के मुसलसल जिहाद इनके ख़ूने पाक की क़ीमत थी के यह हैसियत अली इब्ने मूर्सरिज़ा अलैहिस्सलाम की बलंदो बाला शख्सियत मे उजागर हुई थी। लिहाज़ा इससे फायदा उठाना चाहिए था। ताकि लोग यह ना सोच बैठें के अहलेबैत- जैसा के लोग लोगो ने मशहूर कर रखा है- सिर्फ इल्म और फिक़या है जिनका सियासत और अमली मैदान मे कोई हिस्सा नहीं है और शायद इब्ने अरफा को ईमाम अलैहिस्सलाम का जवाब भी इस बात की तरफ इशारा हो।
(c)- इमाम अलैहिस्सलाम अपने वली अहदी के ज़माने मे मामून के असली चेहरे को लोगो के दरमियान पहचनवाने और इसकी नियतो मक़सद की पोल खोल कर लोगो के ज़हनो दिमाग़ से हर तरह के शको शुबा को ख़त्म करने मे कामयाब हो गए।
3- इमाम का मनफी रवैया:-
इमाम अ० ने मामून की बहाने बाज़ी वाली सियासत को पहचान कर शुरू से ही, यहां तक की वली अहदी क़ुबूल करने से पहले ही मामून की मिशनरी के मुका़बिल मनफी मोक़ुफ इख्तियार किया। नमूने के तौर पर इनमे से कुछ मवाक़िफ पेश किए जा रहे हैं:-
(a)- मामून की ख्वाहिश यह थी कि आप अपने खानदान मे से जिसको चाहे अपने हमराहा लाएं लेकिन इसके बरख़िलाफ़ इमाम अलैहिस्सलाम यह बताने के लिए कि यह एक ज़बरदस्ती का सफर है और मुझको वतन से दूर किया जा रहा है। अपने खानदान में से किसी को यहां तक कि अपने इकलौते बेटे ईमाम जव्वाद अ० को भी अपने साथ नही लाए और घर से निकलते वक़्त उन्होंने अपने खानदान वालो से अपने सामने गिरिया (रोने) करने की ख्वाहिश की।
(2) इमाम अलैहिस्सलाम "मदीने से मरू" के रास्ते मे जब निशापुर पहुंचे तो वहां उलमा और मुख़्तलिफ गिरोहो के लोगो ने इस्तक़बाल किया। इमाम अलैहिस्सलाम ने उनकी ख़्वाहिश पर इस हदीस का बयान फरमाया जो सिलसिला-ए-अल हज़ब के नाम से मशहूर है:- "ख़ुदा वंदे आलम फरमाता है कि कलमए तौहीद मेरा क़िला है और जो मेरे कलमे को पढ़े वो मेरे क़िले मे दाखिल हो गया और जो मेरे क़िले मे दाखिल हो गया। वह मेरे अज़ाब से महफूज़ हो गया।"
जब हदीस ख़त्म हो गई तो इमाम अलैहिस्सलाम ने अपनी सवारी आगे बढ़ा दी लेकिन चंद कदम चलने के बाद फिर ठहरे और सर को कजावा से बाहर निकालकर फरमाया:- "कलमा-ए-तौहीद के लिए कुछ शरायत है और मिन-जुमला इन शरायत कि मै हूँ।"
इमाम अलैहिस्सलाम ने वली अहदी को कुबूल करने के लिए कुछ शर्तें रखी और फरमाया: मुझे (वली अहदी) कुबूल है लेकिन इसकी शर्त यह है कि मै अमरु नही करने वाला और मुफ्ति व काज़ी नही रहूंगा। किसी को मग़रूल व मंसूब नही करुंगा और किसी चीज़ को तब्दील (बदलना) नहीं करूंगा।
मामून ने इमाम अलैहिस्सलाम से चाहा कि नमाज़े ईद पढ़ा दे। आपने जवाब दिया कि मेरे और तुम्हारे दरमियान जो शर्तें है। उनकी बिना पर तुम मुझ को माज़ूर समझो। मामून ने कहा "इससे हमारा मक़सद ये है कि लोग मुतमइन हो जाएं और आपकी फज़ीलत को पहचान ले।
इमाम अलैहिस्सलाम ने जब मामून का इसरार देखा तो फरमाया कि "अगर मजबूरन मुझे इस काम के लिए जाना ही पड़ा तो मै नमाज़ अदा करने के लिए रसूले खुदा और हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की तरह निकलूंगा।
मामून ने कुबूल किया और हुक्म दिया कि हक्काम,दरबारी और आम अफ़राद ईद की सुबह को इमाम रिज़ा अ० के घर के पास हाज़िर हो।
ईद की सुबह हुई इमाम अलैहिस्सलाम ने ग़ुस्ल फरमाया और सफेद अमामा मख़सूस अंदाज से अपने सर पर रखा। अपने आपको खुशबू से मोअत्तर किया हाथ मे असा लिया और नंगे पैर इस हालत मे कि अपने लिबास के दामन को आधी पिंडली तक ऊपर उठा रखा था निकले और अपने घर के अफराद को भी आपने हुक्म दिया के इसी अंदाज से बाहर निकले। इसके बाद सर को आसमान की तरफ बुलंद करके आपने तकबीर कही आपके साथ चलने वालो ने भी आवाज़ सुनकर तकबीर कही।
लश्कर के कमान्डर , सब अफराद और आवाम घर से बाहर निहायत सज-धज कर मुन्तज़िर खड़े थे। जब इमाम अ० को ऐसी हालत मे देखा तो सवारियो से उतर पड़े और पैरो से जूते निकाल डाले। इमाम अ० तकबीरो को बार-बार दोहराते रहे। माहोल मे ऐसी अज़मत बरस रही थी और ऐसा शोर हो रहा था। जैसे आसमान व ज़मीन, दरो दीवार ,शहरे मरू इन के साथ तकबीर कह रहे हो। लोगो मे ऐसी कैफियत थी। कि बेइख्तियार नालओ-गिरिया की आवाज़ बुलंद होने लगी। इमाम अ० रास्ते मे चलते रहे लेकिन हर 10 क़दम के बाद खड़े हो जाते और 4 बार तकबीर कहते।
फज़ल इब्ने सहल ने इस की रिपोर्ट मामून को दी और इतना इज़ाफा किया कि "अगर इमाम अलैहिस्सलाम इसी तरह बढ़ते रहे तो फितना व फसाद बरपा हो जाएगा और हमारे पास जान बचाने का कोई ज़रिया नही है।आप उन तक ये पैग़ाम भेज दे कि इमाम अ० लौट जाएं।"
मामून ने इमाम अ० से कहलवा भेजा कि "हमने आपको ज़हमत दी आप लौट जाइए जो पहले नमाज़ पढ़ाता था वही नमाज़ पढ़ाएगा।"
इमाम अ० वही से पलट गए और वह लोग जो आशफ्ता और पुरंगिदा थे। उन्होंने मामून के नफाक़ और अवाम फरेबी को समझ लिया और यह जान लिया के मामून इमाम अलैहिस्सलाम के लिए जो कुछ कर रहा है। वह सिर्फ दिखावा है इसका मक़सद सिर्फ अपने सियासी मक़ासिद तक पहुंचना है।
शहादते इमाम अ०
मामून इमाम अ० की रोज़ अफज़ू इज़्ज़त व वक़अत को देख कर डरता था। जब उस ने यह समझ लिया कि इमाम अ० को अपने सियासी अग़राज़ व मक़सद के लिए किसी तरह भी इस्तेमाल नही कर सकता। तो उसने इमाम अ० के क़त्ल का इरादा कर लिया। इसलिए कि वो जानता था कि जितना ज़माना गुज़रता जाएगा उतनी ही ज़्यादा इमाम अ० की अज़मत और हक़्क़ानियत नुमाया होती जाएगी और उसका फरेब लोगो के सामने आता चला जाएगा।
लिहाज़ा मख़सूस साज़िश के तहत माहे सफर के आख़िर मे 203 हिजरी मे जब आपकी उम्र 55 साल की थी। आप को ज़हर दे दिया।
और अपने जुर्म पर पर्दा डालने के लिए शहादत की ख़बर फैलने के बाद गरेबां चाक, सर पीटते,आंखो से आंसू बहाते हुए इमाम अ० के घर की तरफ दौड़ा।
लोग इमाम अलैहिस्सलाम की शहादत की ख़बर सुनते ही आपके घर के इर्द-गिर्द जमा हो गए। गिरिया-ओ-नाला की आवाज़ बुलंद थी। मामून को आपके क़त्ल की हैसियत से लोग याद कर रहे थे और बुलंद आवाज़ से फरियाद कर रहे थे कि "फर्जंद-ए-रसूले ख़ुदा क़त्ल कर दिए गए" और अपने को हज़रत के जिस्दे (जिस्म) मुतह्हर की तशय्यो (दफ्न) के लिए आमादा कर रहे थे।
मामून ने महसूस किया कि अगर आपके जिस्द मुताह्हर कि आशकारा तशय्यो की गई तो मुमकिन है कि कोई हादसा पेश आ जाए लिहाज़ा उस ने हुक्म दिया के ऐलान कर दिया जाए कि आज तशय्यो नही होगी।
जब लोग (हारून का हुक्म नही माना और) मुताफर्रिक़ हो गए तो रातो-रात इमाम अ० को ग़ुस्ल दिया गया और हारुन की क़ब्र के पास जो बाग़ "हमीर इब्ने क़हत्बा"(बाग़ का नाम) मे है सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया।
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